दिल से...
जो देखता हूँ,सोचता हूँ,कहने आया हूँ
बुधवार, 18 अगस्त 2010
ऐसी देशभक्ति का क्या फायदा??????????
सोमवार, 24 मई 2010
ये सिसकन ही जिंदगानी है
सिसक सिसक के जी रहे वे, ये सिसकन ही जिंदगानी है,
किस्मत को या रब को कोसे, कोसे से ना रोटी मिलती,
मेहनत भी न कर पाते , बिन रोटी ना जां ये हिलती |
करमहीन बना डाला उनने , रोटी देते जो दानी हैं,
सिसक सिसक के जी रहे वे, ये सिसकन ही जिंदगानी है,
थूक के मलहम लगा लगा के, सूखे ओठ को गिले करते,
पेट की आग बुझा लेते तब , आँखों से जब पानी झरते,
पर कुवे जैसा सुखा चूका , आँखों का जो पानी है.
सिसक सिसक के जी रहे वे, ये सिसकन ही जिंदगानी है,
जी रहे थे मर मर के, तो क्या हुआ जो मर गए,
छुटा पीछा नारकीय जीवन से, दुनिया से तो तर गए,
पर, छोड़ गए अपनी औलादे, ये कैसी नादानी है,
सिसक सिसक के जी रहे वे, ये सिसकन ही जिंदगानी है,
शनिवार, 20 मार्च 2010
... पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !
सोंचा था खुल के जियूँगा पर,
मन की आस ना पूरी हुई,
आज़ादी का सपना, अपना,
पूरी, पर अधूरी हुई |
इतिहास दुहराता है है खुद को,
इतिहास में ही हम पढ़ रहे हैं,
अपनी अपनी हस्तिनापुर को,
आज भी भाई लड़ रहे हैं |
सुख चुका आँखों का पानी,
लाज हया विलुप्त हुई,
दानवता विस्तार पा रही,
मानवता सुसुप्त हुई|
गिर रहें हैं कट कट के सर,
धर्म के कारोबार में,
खुदा भी अब बँट चुका,
उत्तर- दक्षिण के त्यौहार में|
थी भली लाख गुना गुलामी, आज से,
आपस में तो ना लड़ते थे,
उन फिरंगी गोरों के आगे आ,
एक हिन्दुस्तानी होने का तो दम भरते थे|
था सही ऐ "नाथू" तूं,
अब यही सोचा करता हूँ,
मारा तुमने मुझे एक बार,
पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !