सोंचा था खुल के जियूँगा पर,
मन की आस ना पूरी हुई,
आज़ादी का सपना, अपना,
पूरी, पर अधूरी हुई |
इतिहास दुहराता है है खुद को,
इतिहास में ही हम पढ़ रहे हैं,
अपनी अपनी हस्तिनापुर को,
आज भी भाई लड़ रहे हैं |
सुख चुका आँखों का पानी,
लाज हया विलुप्त हुई,
दानवता विस्तार पा रही,
मानवता सुसुप्त हुई|
गिर रहें हैं कट कट के सर,
धर्म के कारोबार में,
खुदा भी अब बँट चुका,
उत्तर- दक्षिण के त्यौहार में|
थी भली लाख गुना गुलामी, आज से,
आपस में तो ना लड़ते थे,
उन फिरंगी गोरों के आगे आ,
एक हिन्दुस्तानी होने का तो दम भरते थे|
था सही ऐ "नाथू" तूं,
अब यही सोचा करता हूँ,
मारा तुमने मुझे एक बार,
पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !