शनिवार, 20 मार्च 2010

... पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !

सोंचा था खुल के जियूँगा पर,

मन की आस ना पूरी हुई,

आज़ादी का सपना, अपना,

पूरी, पर अधूरी हुई |

इतिहास दुहराता है है खुद को,

इतिहास में ही हम पढ़ रहे हैं,

अपनी अपनी हस्तिनापुर को,

आज भी भाई लड़ रहे हैं |

सुख चुका आँखों का पानी,

लाज हया विलुप्त हुई,

दानवता विस्तार पा रही,

मानवता सुसुप्त हुई|

गिर रहें हैं कट कट के सर,

धर्म के कारोबार में,

खुदा भी अब बँट चुका,

उत्तर- दक्षिण के त्यौहार में|

थी भली लाख गुना गुलामी, आज से,

आपस में तो ना लड़ते थे,

उन फिरंगी गोरों के आगे आ,

एक हिन्दुस्तानी होने का तो दम भरते थे|

था सही ऐ "नाथू" तूं,

अब यही सोचा करता हूँ,

मारा तुमने मुझे एक बार,

पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !

5 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

सोंचा था खुल के जियूँगा पर,

मन की आस ना पूरी हुई,

आज़ादी का सपना, अपना,

पूरी, पर अधूरी हुई |इतिहास दुहराता है है खुद को,


इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ..............रचना....

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

bakaiti ने कहा…

achchhi kavita hai

दिलीप ने कहा…

bahut khoob....